गरुड़:- राष्ट्रीय स्तर एवं राज्य स्तर पर पुरस्कारों के लिए की जाने वाली आवेदन परंपरा को बदलना होगा

गरुड़ (बागेश्वर) । वरिष्ठ साहित्यकार रतन सिंह किरमोलिया ने आजकल पुरस्कारों के लिए आवेदन करने पर कड़ी आपत्ति जताते कहा है कि पुरस्कार चाहे राष्ट्रीय स्तर पर दिए जाने हों या राज्य स्तर पर। इसके लिए आवेदन करना एक ऐसी परिपाटी चला दी गई है इसके लिए अखबारों में विज्ञापन दिए जा रहे हैं और फिर नामी गिरामी साहित्यकार,लेखक हों या फिर किसी भी क्षेत्र में सराहनीय काम करने वाले स्वयंसेवी व्यक्ति। सभी को विज्ञापन के अनुसार आवेदन करना पड़ता है।


इतना ही नहीं बल्कि तीन चार बड़े विद्वानों से अपने ही बारे में अनुशंसा भी लिखवानी होती है। भाग-दौड़ एवं जुगाड़बाजी अलग से करनी पड़ती हैं। वैसे भी बिना जुगाड़बाजी के काम हो ही कहां रहे हैं।
उन्होंने यह आवेदन करना यानी मांगना ( आवेदन करना मांगना ही तो है) जो किसी भी क्षेत्र में काम करने वाले व्यक्ति के आत्मसम्मान एवं स्वाभिमान के विरुद्ध है।
परंतु आज देखने में आ रहा है कि बड़े बड़े नामी गिरामी विद्वान भी पुरस्कार के लिए आवेदन करने के साथ ही भाग दौड़ करने लगते हैं। जुगाड़बाजी अलग से करनी है। सभी सम्मानित विद्वान लोग अपना आत्मसम्मान एवं स्वाभिमान दरकिनार कर आवेदन करके पुरस्कार/ सम्मान मांगने में ही अपना बड़प्पन मान रहे हैं। यह जहां चिंतनीय है वहीं चिंताजनक भी। हमारे राज्य में भी उत्तराखंड भाषा संस्थान हर बर्ष कुमांउनी एवं गढ़वाली भाषा के साहित्यकारों को पुरस्कार इसी परंपरा के अनुसार दे रहा है।


उनका विचार हैं कि उत्तराखंड भाषा संस्थान लोक भाषा के सभी उदीयमान एवं स्थापित रचनाकारों की संस्थान में एक पृथक -पृथक गैलरी बनाकर उसमें उनका संपूर्ण रचना संसार कृतित्व एवं व्यक्तित्व प्रदर्शित हो। रचनाकारों की प्रकाशित या पांडुलिपि संग्रहीत हो। हर बर्ष दिए जाने वाले पुरस्कारों के लिए बनाई जाने वाली उच्च स्तरीय चयन समिति उसी गैलरी में से साहित्यकारों का चयन करे। इसमें सभी विद्वान साहित्यकारों का आत्मसम्मान/स्वाभिमान भी बना रहेगा और विज्ञापन जैसी प्रथा से भी बचा जा सकता है। ऐसी स्वस्थ एवं निष्पक्ष परंपरा को नियम बनाए जाने पर सभी विद्वान और सरकार को भी विचार करना चाहिए। इसके साथ ही भाषा संस्थान एवं संस्कृति विभाग के अनुदान से या व्यक्तिगत प्रयास से प्रति बर्ष छपने वाले लोक साहित्य को देश/प्रदेश के पुस्तकालयों/वाचनालयों के लिए क्रय/ विक्रय करने पर भी विचार किया जाना चाहिए। इससे लोक भाषा का प्रचार प्रसार के साथ ही पठन-पाठन की परंपरा भी विकसित होगी। रचनाकारों को भी रॉयल्टी के रूप में आर्थिक लाभ मिलेगा, इससे भाषा माफियाओं और पुरस्कार माफियाओं पर भी अंकुश लगेगा।
संस्थान में ऐसे लोक भाषाओं के उत्थान के लिए समर्पित विद्वानों और अधिकारियों की उच्च स्तरीय समिति नामित कर यह गुरुतर दायित्व सौंपा जाए। सरकार को इस पर गम्भीरता के साथ विचार कर स्वस्थ परम्परा को अपनाना आवश्यक प्रतीत होता हैं। शासन स्तर से इस ओर आवश्यक कदम उठाए जाय।